पद राग धनाश्री नं॰ ४४
सुनोजी तुम सतसंग का उपकार, सुनोजी तुम सतसंग का उपकार॥टेर॥
जैसे कीट भृंग संग होकर, शब्द सुणे इकसार।
कीट भाव पल मांही पलट कर, उडे भृंग की लार॥१॥
कानन द्रुम मिले मलियागर, होवत सुगन्ध अपार।
वोही स्वरुप वस्तु है, वोही बेचो जाय बजार॥२॥
नीचा नीर श्वपच गलियों का मिले गंग मजधार।
ऋषि मुनि जन शीश चढावे, हरी हर करत उचार॥३॥
ऐसे संत जनो के संग से, तरे नीच दुराचार।
वृद्व युवा चाहे स्त्री पुरुष हो, चाहे विप्र चमार॥४॥
श्री देवपुरी परब्रह्म अनादि, वोही इष्ट हमार।
श्री स्वामी दीप कहे सतसंग री महीमा अपरम्पार॥५॥