पद राग आसावरी जोगिया नं॰ ५२
ऐसा मोरा सतगुरु सत सत गाया।
अनुभव अलौकिक दरशाया॥टेर॥
है है है है नहीं नहीं, नहीं नहीं, नहीं है नहीं है पाया।
सब कुछ है और कुछ भी नाहीं, याके मध्य बताया॥१॥
मुरदा कहूँ तो चेतन दरसे, चेतन मुरदा थाया।
नहीं है चेतन जड भी नहीं है, रंग रुप नहीं दाया॥२॥
लक्ष अर्थ में लक्ष और है, नहीं माया निर्माया।
ऐसा खोज विचारों सब ही, ज्यों पक्षी नभ उडाया॥३॥
जल में मोन खोज मच्छर का, कथने में नहीं आया।
वेद न बोध शब्द नहीं पहुँचे, लिखनें में नहीं भाया॥४॥
ज्यों गूंगे मन स्वप्न भयो है, समझ-समझ मुस्काया।
है चुपचाप आप ही समझे, आनन्द गुम बैठाया॥५॥
जैसे लवन पुतरी ददि में, थाह लेवण को धाया।
गल आकर मिली समुद्र में, स्वामी दीप फरमाया॥६॥