पद राग गजल नं॰ ५८
हैरान तोबा कहत हूँ, मुरसद के कदमो गही।
जो हमारे दरद की पीर जाने वोही॥टेर॥
उस्ताद यह राह पूछता, बारीक में सदाई।
मुरसीद ने कर महरबानी, बे चुन-२ हल खाई॥१॥
पीर मुरशद की बन्दगी, करने लगा मैं दिल मांही।
अर्श पे बैठा नहीं, हर जहां है बेचून दुर मांही॥२॥
भी तू ही तालिम कहत हूँ, कदमों की खाक सार जहां ही।
महबूब मुरसद है हमारा, रब खुदा अल्ला वही॥३॥
हीरस कर यह राज गुजारा, पीर की नसीहत यही।
श्री स्वामी दीप कहत मुरसिद का सबपे रोशन सही॥४॥