पद राग दीपचन्दी ताल खमाच नं॰ ६४
पाया हो पाया हमने, सतगुरु पीव हजूर॥टेर॥
एक निमिष न्यारी नहीं रेऊं मन की बात पीव ने केऊं कुदरत बरसत नूर॥१॥
कोटि भानु ज्यों दरसत नूरा, ऐसा पुरुष पुरुषोत्तम पूरा।
धीर वीर सूर बल वीरा, अनहद बाजे तूर॥२॥
अचल अलख अविनाशी, ऐसा सदर सिंहासन रहता है जैसा का तैसा।
पार ब्रह्म निर्विकार वैसा, सर्वत्र भरपूर॥३॥
अलौकिक करतार विसम्भर जन्म धरे नहीं है वो अमर।
ॐकार के पारयोगी, लखता है कोई सूर॥४॥
श्री देवपुरी निर्गुण निरंतर, एक सरीखा बाहर भीतर।
स्वामी दीप कहे नित्य रहे पवित्र, सतगुरु आनन्द पूर॥५॥