नीपल आश्रम की स्थापना
थोड़े दिन बाद जब मैं ध्यानमग्र था, तब श्री महाप्रभुजी ने मुझे दर्शन देकर यह आज्ञा प्रदान की-कि, ''हे माधव! तुम्हारे गाँव नीपल में ही मेरे नाम के तीर्थधाम की स्थापना करो। मेरा दिव्य प्रकाश वहाँ अखण्ड रूप से विद्यमान रहेगा। वहाँ पर शुद्घ भावनाओं से आने वाले सभी भक्तों के दु:ख दूर होंगे और उनकी मनोकामनाएं भी पूर्ण होंगी। श्री महाप्रभुजी की इस पवित्र आज्ञा को शिरोधार्य किया। मैं इस पुनीत कार्य को सम्पन्न करने में लग गया।''
नीपल में आश्रम बनवाने की इच्छा से मैंने श्री मूलचन्दजी धारीवाल तहसीलदार देसूरी को एक पत्र लिखा। उस पत्र को पाते ही श्री मूलचन्दजी अपने दो सेवकों के साथ नीपल आ गये। उनके आगमन पर गाँव की जनता को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। ''आश्रम कहाँ बनाया जावे?'' इस प्रश्न पर श्री धारीवालजी ने गाँव के सभी भक्तजनों से परामर्श किया।
नीपल गाँव की नदी के उस पार पश्चिम की तरफ जो नाडौल-रानी सड़क के निकट भू-भाग पर लोगों को जिन्द, भूत, प्रेत इत्यादि का भयंकर डर था, उसी स्थान पर मैंने आश्रम बनाने का पूर्ण निर्णय किया। यहाँ आश्रम बन जाने से भय के स्थान पर अभयदान मिले। साथ ही आसुरी देवी एवं क्षेत्रपाल के नाम के पत्थर थे, वहीं रास्ते के दक्षिण में इमली के विशाल वृक्ष के नीचे मामादेव का चबूतरा था।
लोगों में भय व्याप्त था कि इन देवताओं के कारण ही गाँव नीपल में ज्यादातर लोग बीमार होते जा रहे हैं। इन सब कारणों को ध्यान में रखते हुए मैंने सभी भक्तजनों की सलाह से वहीं पर आश्रम बनवाने का निश्चय किया। ''श्री महाप्रभुजी के नाम से यह भूमि पवित्र होगी।'' ऐसा विचार कर श्री महाप्रभुजी का नाम लेकर आश्रम भवन का पाया खोदना प्रारम्भ कर दिया। उस क्षेत्रपाल आसुरीदेवी की सभी मूर्तियों को नींव में डलवा दिया गया।
कुछ ही समय में एक बहुत सुन्दर भवन बनकर तैयार हो गया। गाँव के लोग इस भवन को देखकर दंग रह गये। वे कहने लगे कि ऐसे क्रूर देवताओं को भी नींव में दबा दिया गया तो भी श्री माधवानन्दजी का कुछ भी नहीं हुआ। यह सब श्री महाप्रभुजी की कृपा का ही अद्भुत चमत्कार है।
आश्रम बनने के बाद सर्व भक्तों ने मुझे कहा, ''अपने परम पूज्य गुरु परमात्मा सर्वेश्वर भगवान श्री दीपनारायण महाप्रभुजी की मूर्ति सुन्दर सफेद संगमरमर की इस आश्रम में स्थापित होनी चाहिए और इसके स्थापना हेतु राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री सुखाडिय़ा साहब को आमन्त्रित करे।'' सभी भक्तों के आग्रह से मैं जयपुर गया, वहाँ श्री सन्तरामजी शर्मा पुलिस महानिदेशक (आई.जी.पी.) के बंगले पर ठहरा। वहाँ बहुत से सत्संगी आये और श्री सन्तरामजी बहुत प्रसन्न हुए। श्री सन्तरामजी सन्त स्वभाव के सतपुरुष थे।
वहाँ बहुत ही अच्छा सत्संग हुआ, फिर मैंने श्री सन्तरामजी से कहा कि, ''मेरा विचार श्री महाप्रभुजी की मूर्ति बनाने का है।'' तब श्री सन्तरामजी बड़े प्रसन्न हुए और बोले, ''यह सेवा मैं करूँगा, यह पवित्र सेवा कार्य गुरु कृपा से ही मिलता है।'' फिर शर्माजी ने मूर्ति बनाने का कार्य जयपुर के प्रसिद्घ मूर्ति कलाकर श्री हीरालाल एण्ड सन्स को दिया। मूर्ति तैयार होने पर मूर्ति को नीपल पहुंचाने के लिए शर्माजी ने पुलिस के गार्ड को नीपल तक भेजा, फिर मैंने श्री शर्माजी के द्वारा मुख्यमन्त्री को मूर्ति स्थापित हेतु आमन्त्रण-पत्र भेजा जो श्री सुखाडिय़ा साहब ने सहर्ष स्वीकार किया और दिन के ११ बजे दिनांक १३-७-६५ को गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ सुदी पूनम) को पहुँचने का समय दिया।
इस महोत्सव के शुभ अवसर पर देश-विदेश के हजारों भक्त, सन्त, महात्मा, विद्वान, भजन-मण्डली, आस-पास के गाँवों की जनता उमड़ पड़ी, सब श्री महाप्रभुजी की मनोहर मूर्ति के दर्शनार्थ लालायित थे। भजन, कीर्तन, धुन माईक पर चल रहा था और पुलिस के महानिदेर्शक श्री सन्तरामजी शर्मा पहले ही पधारे हुए थे। पाली जिलाधीश श्री एच.एल. रमानी पुलिस अधीक्षक श्री गुमानसिंहजी भाटी व बहुत से विधायक व मन्त्रीगण उपस्थित थे। मुख्यमंत्री 11 बजे आने वाले थे मगर 12 बजे तक भी नहीं आये। कड़ाके की गर्मी से नदी की रेत गर्म थी। गर्मी के मारे सब घबराने लगे, सब श्री महाप्रभुजी से प्रार्थना करने लगे, ''प्रभु, हमको क्या आज यहाँ तपस्या करा रहे हो। कोई कह रहा था महाप्रभुजी तो साक्षात विद्यमान हैं मगर अपनी दृढ़ता कितनी है, वह देख रहे हैं।''
बहुतों ने श्री महाप्रभुजी से कहा, ''प्रभु, आप जीवों के त्रिताप मिटाते हो तो आज यह असह्य गर्मी तो मिटा दो। बहुत से लोगों ने कहा, यह परीक्षा तो बड़ी महंगी पड़ रही है। इतने में उत्तर दिशा से घने बादल उमड़ आये, ठण्डी हवा चलने लगी, वातावरण अनुकूल बन गया, कुछ लोगों को ठण्ड लगने लगी। तब सभी जन-समूह श्री महाप्रभुजी की जय-जयकार मनाने लगे और कहने लगे कि, ''दु:ख भंजन दातार ही दु:ख हरण कर सकते हैं। इस समय अमृत जैसे आनन्द का आभास हो रहा है।''...
लीला अमृत से
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